छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल को इस वर्ष का 59वां ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने की घोषणा होने के साथ ही प्रदेश में गर्व और उत्साह की लहर दौड़ गई। हिंदी साहित्य की दुनिया में अपने अनोखे लेखन, संवेदनशील भाषा और अद्भुत कल्पनाशीलता के लिए पहचाने जाने वाले विनोद कुमार शुक्ल पहली बार छत्तीसगढ़ से यह सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान पाने वाले साहित्यकार बने हैं। 88 वर्ष की उम्र में भी उनकी साधना, सादगी और लेखन के प्रति समर्पण उन्हें हिंदी के उन विरले रचनाकारों की श्रेणी में खड़ा कर देता है, जिनके शब्दों में प्रकाश, उम्मीद और जीवन की महीन बारीकियाँ सहज ही उतर आती हैं।
ज्ञानपीठ चयन समिति ने कहा है कि विनोद कुमार शुक्ल की रचनाएँ मानव जीवन के सबसे साधारण और सबसे गहरे अनुभवों को एक अनोखी सरलता के साथ व्यक्त करती हैं, और यही उनकी लेखनी को विशिष्ट बनाता है। पुरस्कार की घोषणा के बाद उन्होंने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि जीवन ने बहुत कुछ समझाया, दिखाया और सुनाया, लेकिन लिखने के लिए समय हमेशा कम पड़ गया, और मन आज भी बहुत कुछ लिखना चाहता है। यह वक्तव्य उनकी आजीवन लेखकीय तपस्या और सतत सृजनशीलता का प्रमाण बनकर उभरता है।
विनोद कुमार शुक्ल का रचनात्मक सफर अत्यंत समृद्ध रहा है। ‘लगभग जय हिंद’ से लेकर ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, ‘खिलेगा तो देखेंगे’ और ‘नौकर की कमीज़’ जैसे उपन्यासों तक, उन्होंने हिंदी साहित्य को ऐसी रचनाएँ दीं जो पाठकों के मन में वर्षों तक जीवित रहती हैं। उनके उपन्यासों में जीवन की छोटी-छोटी बातों से उभरती बड़ी संवेदनाएँ और कविता-सी सहज भाषा हमेशा से पाठकों का मन जीतती रही है। 1999 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने के बाद अब ज्ञानपीठ सम्मान ने उनकी प्रतिष्ठा को एक नई ऊंचाई दी है।
ज्ञानपीठ पुरस्कार के अंतर्गत उन्हें ग्यारह लाख रुपये की सम्मान राशि, सरस्वती की कांस्य प्रतिमा और सम्मान पत्र प्रदान किया जाएगा। छत्तीसगढ़ के लिए यह क्षण इतिहास में दर्ज हो गया है, क्योंकि इससे पहली बार राज्य का कोई साहित्यकार देश के सर्वोच्च साहित्यिक मंच पर इस ऊंचाई तक पहुंचा है। यह सम्मान सिर्फ विनोद कुमार शुक्ल का नहीं, बल्कि हिंदी भाषा, छत्तीसगढ़ की साहित्यिक परंपरा और उन पाठकों का भी है जिनके बीच उनकी रचनाएँ वर्षों से प्रकाश फैलाती रही हैं।
छत्तीसगढ़ के साहित्यिक गौरव विनोद कुमार शुक्ल को 59वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार

