बस्तर संभाग के शिक्षकों में इन दिनों उबाल है और वजह वही पुरानी है, बस अंदाज़ थोड़ा नया। संयुक्त संचालक शिक्षा की कार्यशैली अब “निरीक्षण” से ज़्यादा “अपमान” का पर्याय बन चुकी है। शिक्षकों का कहना है कि पिछले कुछ महीनों से यह अधिकारी विद्यालयों के दौरे पर तो जाते हैं, पर मक़सद शिक्षण व्यवस्था सुधारना नहीं, बल्कि शिक्षकों को सार्वजनिक रूप से नीचा दिखाना होता है। विरोध के स्वर अब फुसफुसाहट नहीं रहे – गरज बन चुके हैं। शिक्षक संगठनों का आरोप है कि निरीक्षण के नाम पर मानसिक प्रताड़ना का सिलसिला बढ़ गया है। किसी शिक्षक को बच्चों के सामने डाँट, किसी को रसोइये और सहकर्मियों के बीच अपमान। कई शिक्षकों को बिना ठोस कारण “निलंबन” या “दो वेतन वृद्धि रोकने” की सज़ा तक मिल चुकी है। और तो और, स्कूलों में बनाए गए निरीक्षण वीडियो सोशल मीडिया पर डालकर “शिक्षक की छवि सुधारने” का सरकारी संस्करण भी अब वायरल हो चुका है। विरोध की आग पहली बार नहीं भड़की। 16 अक्टूबर को बस्तर जिले के हजारों शिक्षकों ने रैली निकालकर आयुक्त और कलेक्टर के ज़रिए मुख्यमंत्री व शिक्षा मंत्री को ज्ञापन सौंपा था। ज्ञापन में साफ़ कहा गया था – “तीन दिन में संयुक्त संचालक को हटाइए, वरना आंदोलन तय है। लेकिन शायद शासन को लगा कि दीपावली की मिठाई से यह नाराज़गी ठंडी पड़ जाएगी। नतीजा….दीपावली बीत गई, पर शिक्षक अब और सुलग उठे हैं। 31 अक्टूबर को सर्व शैक्षिक संगठनों की वर्चुअल बैठक में तय हुआ कि अब प्रतीकात्मक विरोध नहीं, संगठित आंदोलन होगा। 3 नवंबर से शिक्षक काली पट्टी लगाकर विरोध जताएँगे और 7 नवंबर को बस्तर संभाग के सातों जिलों – बस्तर, कोंडागांव, कांकेर, नारायणपुर, दंतेवाड़ा, बीजापुर और सुकमा के स्कूलों में तालाबंदी होगी। जगदलपुर की सड़कों पर सुबह 11 बजे से शिक्षक रैली में उतरेंगे, अपनी गरिमा की लड़ाई को आवाज़ देने। शिक्षक संगठनों ने साफ़ कहा है…..यह आंदोलन तनख्वाह या तबादले का नहीं, सम्मान का है। लेकिन अफ़सोस यही कि “शिक्षक दिवस” के मंच से जिनकी पीठ थपथपाई जाती है, वही शिक्षक बाकी साल किसी न किसी दफ्तर में “निरीक्षण के नाम पर अपमान” झेलते रहते हैं। सरकार को सोचना होगा…क्या व्यवस्था सुधारने का रास्ता शिक्षकों का मनोबल तोड़कर निकलेगा? क्या हर गलती का इलाज “सस्पेंशन” और “शो-कॉज़” में ही है? या फिर यह वो दौर है जब शिक्षक को पढ़ाने से ज़्यादा “प्रूफ़ देने” में वक्त लगाना पड़ेगा? बस्तर की इस आवाज़ को अनसुना करना अब मुश्किल होगा। क्योंकि जब शिक्षक सड़क पर उतरते हैं, तो यह सिर्फ़ विरोध नहीं – पूरे तंत्र की नाकामी का सबूत होता है।
निरीक्षण या अपमान ? बस्तर के शिक्षकों की गरिमा पर प्रशासनिक शिकंजा

