देश के गृहमंत्री अमित शाह ने नक्सलियों को मार्च 2026 तक का अल्टीमेटम दिया हुआ है—सरेंडर करो या पूरी तरह खत्म होने के लिए तैयार रहो। केंद्र सरकार की इस दो-टूक नीति के बाद सुरक्षा एजेंसियों ने जंगलों में अभूतपूर्व दबाव बनाया है। लगातार सफल ऑपरेशनों के चलते नक्सलियों का नेटवर्क कई इलाकों में टूटता हुआ नज़र भी आ रहा है।
छत्तीसगढ़ सरकार और सुरक्षा बलों की संयुक्त रणनीति ने पिछले दो वर्षों में नक्सलियों की शक्ति को गहरा झटका दिया है। दर्जनों बड़े कैडर मारे गए, कई आत्मसमर्पण कर चुके हैं और जंगलों की वह अभेद्य दीवार भी दरक रही है, जिसे नक्सली decades से अपना किला समझते थे।
लेकिन जब सरकार और सुरक्षा बल निर्णायक मोड़ पर खड़े हों, तभी बीजापुर से ठेकेदार की गला रेतकर हत्या की यह खबर सामने आती है। यह घटना केवल एक व्यक्ति की हत्या नहीं, बल्कि विकास और लोकतंत्र के खिलाफ नक्सलियों का खुला युद्ध है। यह दर्शाती है कि कमजोर होने के बावजूद नक्सली अपनी बर्बर मानसिकता से पीछे नहीं हटे हैं।
सड़क निर्माण में लगे ठेकेदार इम्तियाज़ अली की हत्या इस बात का प्रतीक है कि नक्सली अब भी विकास कार्यों को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं। क्योंकि सड़क, पुल और मोबाइल नेटवर्क नक्सलवाद के लिए वही हैं जो रोशनी अंधेरे के लिए—सीधा खतरा।
खबरों के अनुसार, नक्सलियों ने पहले निर्माण कार्य में लगे मुंशी को अगवा किया और जब ठेकेदार उसे छुड़ाने पहुंचे तो उनकी बेरहमी से हत्या कर दी। यह घटना बताती है कि नक्सली अब भी रणनीतिक रूप से विकास कार्यों से जुड़े लोगों को निशाना बनाकर इलाके में भय का माहौल बनाए रखना चाहते हैं।
सवाल यह भी उठता है कि जब जंगलों में सुरक्षा बलों का इतना मजबूत दबदबा है, बड़े-बड़े दंतेवाड़ा, सुकमा और बीजापुर ऑपरेशनों में सफलता मिल रही है, तब भी नक्सली इस तरह की वारदात करने में कैसे सफल हो जाते हैं। यह सुरक्षा व्यवस्था की नहीं, बल्कि नक्सलियों की हताशा और अंतिम संघर्ष का संकेत भी माना जा सकता है।
नक्सली आज जिस तरह ठेकेदारों, मजदूरों और आम आदिवासियों को निशाना बना रहे हैं, वह इस बात का प्रमाण है कि उनकी वैचारिक जमीन खत्म हो चुकी है। जब किसी आंदोलन की जड़ें कट जाती हैं, तो वह बचे-खुचे अस्तित्व को बचाने के लिए आतंक और हिंसा को ही हथियार बनाता है।
केंद्र और राज्य सरकार की नीतियों ने इस समय नक्सलवाद को बिल्कुल चारों तरफ से घेर रखा है। सरेंडर पॉलिसी से ले लेकर गांवों तक विकास कार्यों के पैकेज ने नक्सलियों की भर्ती क्षमता को भी कमजोर कर दिया है। लेकिन ऐसे में बीजापुर जैसी घटनाएँ यह याद दिलाती हैं कि संघर्ष के आखिरी दौर में विरोधी सबसे ज्यादा खतरनाक होता है।
ठेकेदार की हत्या छत्तीसगढ़ में चल रहे बड़े निर्माण कार्यों, खासकर सड़क और सुरक्षा कैम्पों के विस्तार को रोकने की एक कोशिश है। नक्सली जानते हैं कि जिस दिन इन इलाकों में सड़कें पूरी तरह बन गईं, उस दिन जंगल का साम्राज्य ढह जाएगा।
प्रशासन के लिए यह घटना एक चेतावनी भी है। विकास कार्यों में लगे कर्मचारियों और ठेकेदारों की सुरक्षा को और मजबूत करना होगा। नक्सलियों का अंतिम प्रतिरोध जितना तीव्र होगा, उतना ही सुरक्षा-बलों और शासन की सावधानी बढ़नी चाहिए।
यह समय निराश होने का नहीं, बल्कि नक्सली हिंसा के इस आखिरी दौर को बेहद रणनीतिक तरीके से परास्त करने का है। सरकार की नीति और सुरक्षा-बलों की मेहनत ने पहली बार नक्सलवाद को घुटने पर आने की स्थिति में पहुँचा दिया है।
इसलिए बीजापुर की यह घटना भले ही दर्दनाक और विचलित करने वाली है, लेकिन इसे नक्सलियों की “अंतिम बौखलाहट” के रूप में भी पढ़ा जाना चाहिए। देश मार्च 2026 की उस डेडलाइन के बेहद करीब है, और अब यह लड़ाई केवल सुरक्षा-बलों की नहीं—बल्कि विकास बनाम हिंसा की है। इसमें जीत उसी की होगी, जो जीवन, प्रगति और शांति को चुनता है।
डेडलाइन के बीच नक्सलियों की बर्बरता……..बीजापुर की घटना विकास पर सीधा हमला

