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संघ के शताब्दी वर्ष में प्रवेश: विचार की शताब्दी, संगठन की शक्ति

विशेष संपादकीय | सुनील अंबेकर, अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख, आरएसएस

1925 में विजयादशमी के दिन डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने एक बीज बोया था, एक विचार का बीज, जो आज वटवृक्ष बनकर भारत के सामाजिक जीवन को छाया दे रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) आज अपने 100वें वर्ष में प्रवेश कर चुका है। यह केवल एक संगठन की यात्रा नहीं, बल्कि एक राष्ट्र के पुनर्निर्माण की कथा है।

संगठन नहीं, संस्कार है संघ

संघ की शाखा में कोई औपचारिक सदस्यता नहीं होती। कोई भी आ सकता है, सीख सकता है, और समाज के लिए कार्य कर सकता है। यहाँ पद नहीं, कार्य होता है। प्रचारक, जो पूर्णकालिक और अविवाहित होते हैं, संघ की रीढ़ हैं। वे विचार के वाहक हैं, और समाज को जोड़ने वाले सूत्रधार।

संघ का नेतृत्व चुनाव से नहीं, सेवा से आता है। सरसंघचालक का चयन प्रचारकों द्वारा होता है, जो संगठन की आत्मा को समझते हैं। यह नेतृत्व विचारों की स्पष्टता, संगठन की समझ और समाज के प्रति संवेदनशीलता पर आधारित होता है।

संघ के साथ आज 36 से अधिक संगठन जुड़े हैं, विद्यार्थी परिषद, सेवा भारती, विश्व हिंदू परिषद, विवेकानंद केंद्र, वनवासी कल्याण आश्रम, अधिवक्ता परिषद, पूर्व सैनिक परिषद, सीमा जागरण मंच जैसे संगठन समाज के हर वर्ग में कार्यरत हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण, पर्यावरण संरक्षण और राष्ट्र रक्षा जैसे क्षेत्रों में संघ का योगदान उल्लेखनीय है।

विचार से व्यवहार तक: 100 वर्षों की उपलब्धि

संघ ने 100 वर्षों में न केवल संगठन का विस्तार किया, बल्कि भारत के सामाजिक जीवन में गहराई से अपनी भूमिका निभाई है। यह एक विचार है जो व्यक्ति को राष्ट्र के लिए समर्पित करता है। यह एक प्रक्रिया है जो समाज को संगठित करती है। यह एक आंदोलन है जो भारत को भारत बनाता है।

संघ का शताब्दी वर्ष केवल उत्सव नहीं है, यह आत्मचिंतन और नवचिंतन का अवसर है। आने वाले वर्षों में संघ का लक्ष्य है, समाज को और अधिक संगठित करना, युवाओं को प्रेरित करना, और भारत को विश्वगुरु के रूप में प्रतिष्ठित करना।

संघ की यह यात्रा विचार की शताब्दी है—जहाँ राष्ट्र सर्वोपरि है, और सेवा ही साधना।

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